पशु सम कर्म और खुद को इंसान कहते हैं ।
खुद उसे पैसों में तोलते हैं, और उसे भगवान कहते हैं।
दूसरे के मुंह पर कालिख पोत कर खुद को नादान कहते हैं।
मानवता से है कोसों दूर और खुद को इंसान कहते हैं।
बातें अमन की और बेचते हथियार हैं।
स्थिर चित्र में साथ-साथ पर आंखों में तकरार है।
मन में है ईर्ष्या और ओंठो में आभार है।
संबंध है मित्रता का पर बातों में ललकार है।
कहने को गणतंत्र है पर पैसों की सरकार है।
कर्म निराले और असभ्य भाषा है।
स्वयं निंद्रा और आलस में, पर दूसरे से आशा है।
इस नए मानव ने खुद को क्या खूब तराशा है।
चेहरे पर त्योहार और मन में निराशा है।
जलमग्न है पर फिर भी पिपाशा है।
- चंद्रकांत बहुगुणा
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