दौड़ते सवाल से थे जो रगों में, क्यों अब चुप से हैं ?
दूसरे की हार जीत से मुझे क्या फर्क पड़ता है , जब मेरी जंग खुद से है ।
कोई और कैसे अंत करे, जब मेरी परेशानियां मुझ से हैं।
उस दौर से भी होकर आया हूं , जो दौर ही मनहूस था ।
न अपनी करनी पर मायूस था, ना ही कुछ होता महसूस था ।
मजबूत था उस वक्त मैं , था शिखर की ऊंचाई पर ।
न ही नजर सूर्य पर थी , ना ही नीचे खाई पर ।
ध्यान भटका क्षण भर !..
और अब मैं गहराईयों में दफन था।
जो स्थान न था कुछ क्षण भर पहले , अब मेरे लिए वह स्वप्न था।
लाख किए प्रयत्न पर उस समय सभी बेकार थे ।
अनजान था जिन बातों से , सीखे कुछ सत्य संसार के ।
हर दृश्य मनोरम लगता है शिखर की ऊंचाई से ।
पथ की बाधाएं पता चली , सतह से ! गहराई से !
मुखौटों के पीछे का अंधेरा दिखने लगा ।
दुनियादारी का तजुर्बा मिलने लगा ।
उस तजुर्बे ने बदला रूप मेरा , एक नए अवतार सा ।
आखों में सच की लपटें और, उर में सच संसार का ।
- चंद्रकांत बहुगुणा
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ReplyDelete👌👌👍👍
ReplyDelete😘 ãwêsömë bro
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