Tuesday, November 26, 2019

दुनियादारी (कविता)

तकदीर से शिकायत नहीं मुझे , शिकायत तो खुद से है ।
दौड़ते सवाल से थे जो रगों में, क्यों अब चुप से हैं ?
दूसरे की हार जीत से मुझे क्या फर्क पड़ता है , जब मेरी जंग खुद से है ।
कोई और कैसे अंत करे, जब मेरी परेशानियां मुझ से हैं।

उस दौर से भी होकर आया हूं , जो दौर ही मनहूस था ।
न अपनी करनी पर मायूस था, ना ही कुछ होता महसूस था ।
मजबूत था उस वक्त मैं , था शिखर की ऊंचाई पर ।
न ही नजर सूर्य पर थी , ना ही नीचे खाई पर ।

ध्यान भटका क्षण भर !.. 
और अब मैं गहराईयों में‌‌ दफन था।
जो स्थान न था कुछ क्षण भर पहले , अब मेरे लिए वह स्वप्न था। 

लाख किए प्रयत्न पर उस समय सभी बेकार थे ।
अनजान था जिन बातों से , सीखे कुछ सत्य संसार के ।

हर दृश्य मनोरम लगता है शिखर की ऊंचाई से ।
पथ की बाधाएं पता चली , सतह से ! गहराई से ! 
मुखौटों के पीछे का अंधेरा दिखने लगा ।
दुनियादारी का तजुर्बा मिलने लगा ।

उस तजुर्बे ने बदला रूप मेरा , एक नए अवतार सा ।
आखों में सच की लपटें और, उर में सच संसार का । 

                        
                      - चंद्रकांत बहुगुणा 





4 comments:

अभियंता

सुनो सुनो सब व्यथा मेरी  मैं भविष्य का अभियंता हूं पहले बनता था विद्या से अब लक्ष्मी से भी बनता हूं करता हूं नित दिन परिश्रम फिर भी समाज की ...