Friday, December 20, 2019

मूक ( कविता)



वह मूक नहीं है , पर क्यों बोले उस जड़ इंसान से 
भीक नहीं मांगेगा , वह मरेगा सम्मान से 

प्रतिपल मरता जाए वह मनुष्य के अपमान से 
जीवन का संघर्ष करे वह पूरी जान और शान से 

जिस खेत से उपजे अन्न के हम खाते हैं ग्रास कई
उसी खेत पर जो हल लगाए उसके लिए घास नहीं 

मांस तक उसका खाएं जिसका हमने दूध पिया
हे मानव , उसकी लाचारी का इस्तेमाल तुमने खूब किया 

चुप रहा वह तब भी जब उसके घर को राख किया
पीकर अपने गुस्से को उसने हर बार हमें माफ किया 

साथ दिया उसने हर मोड़  पर जिस इंसान का
वही मानव भूका निकला उस मूक की जान का 

हे मूर्ख ! क्यों बसी उसपर तेरी जान है 
यह किसी का सगा नहीं , यह एक इंसान है 






नोट - आप सभी से अनुरोध हैं ,  जहां तक हो सके  इनकी सहायता करें । क्योंकि उनकी इस  दयनीय स्थिति  के जिम्मेदार   भी हम ही हैं । 



                            - चंद्रकांत बहुगुणा 

2 comments:

अभियंता

सुनो सुनो सब व्यथा मेरी  मैं भविष्य का अभियंता हूं पहले बनता था विद्या से अब लक्ष्मी से भी बनता हूं करता हूं नित दिन परिश्रम फिर भी समाज की ...